उलझन

उलझन

उलझन की हस्ती में, दोस्ती कम पड़ जाती है,
बोलती है जब तन्हाई, मस्ती चुप हो जाती है।

सपनों के कागज़ पर, रंग भरना अच्छा लगता है,
चांदनी रात में, जैसे पुराना भी सुहाना लगता है।

सोचना तो अक्सर, मन की कसरत है,
भाव-भंगिमाओं से दिल को कहाँ फुर्सत है?

जब मन में शोर हो, दुनिया के ओर हो,
फिर सर्दी का भोर हो या जेठ का दोपहर हो।
उम्मीद ही वास्तव में सुनहरी तक़दीर है,
हाथ की लकीर तो आस्था की ज़ंजीर है।

खुद से लड़ना है, दुनिया को दिखाना है,
अजीब ज़माना है, बहाना ही बहाना है।
उलझनों की तुरपाई में, खुशियां खो जाती हैं,
बाप-बेटे की लड़ाई में, मां सहम के सो जाती है।

असहमति से सस्ती, कुछ नहीं है बस्ती में,
अपराध भी भ्रष्ट हो गया मौज-मस्ती में।

गौतम झा

 

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