रफा-दफा

रफा-दफा

दबी हुई आह के गिरफ्त में हूं मैं,
दीद के दहक के फेहरिस्त में हो तुम।।

क़हक़हे की गूंज में बेबस मुस्कान सा चित्त है,
भूली बातों का सहसा याद आना अब विचित्र है।।

तुम्हारी आहट प्रतीत होता है ऐसे,
छाई धुंध में टपका हो सीत जैसे।।

तुम्हारे रुखसार पर जो निखार आया है,
मेरे असर का सौभाग्य लाया है।।

मेरी बातों को बदल के दोहराती हो,
अकसर ऐसे ही तुम मुझे अपनाती हो।।

चलते हुए ठिठकती हो मेरे पार्श्व में,
क्या यही अभिव्यक्ति है मेरे स्वार्थ में।।

'होने और न होने की' द्वंद को विदा करो,
एक नज़र में ही सारे बातों को रफा-दफा करो।

-गौतम झा

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