नारी

नारी

श्रेष्ठ जीव का अंतर प्रत्यक्ष है,
मानवता का मूल्य पृथक है,
सत्य – सनातन धर्म विवश है,
नारी का अहम विषम है।

मर्यादा के गौरव गाथा में,
कुछ मूल्य सहज खो जाते हैं
जब नारी की बारी हो,
भृकुटि तन जाते है।

सीता से शुरुआत किया,
शूर्पणखा का नहीं विचार किया,
क्या? कोई मूल्य नहीं था उसके भावों का,
माना अनुकूल क्षण नहीं था प्रस्तावों का।

तुम तो रघुकुल मर्यादित थे,
तुम में रक्त – रंजित अंश न थे,
फिर नारी का क्यों अपमान किया?
सहसा दंड का क्यों प्रावधान किया?

दानव का संघार किया,
मानव का उत्थान किया,
फिर, सीता का घोर अपमान किया।

अनल दुग्ध से उसे नहाया,
चरित्र के प्रमाणिकता का पाठ पढ़ाया,
अनुचित को उचित किया,
नारी के मान का एक पाठ बढ़ाया।

ईश्वर – नश्वर सब एक है,
पर नारी के भेद अनेक हैं।

इन्द्र ने मादकता का पान किया, 
अहिल्या का नहीं सम्मान किया,
दम्भ तो देखो गौतम का,
अन्य पुरुष का गान किया,
और अपने औरत का नहीं सम्मान किया।

चल से उसे अचल बनाया,   
पत्थर करके उसने जग हँसाया।

-गौतम झा

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