"मेरी क़लम और मैं"
साँस यक़ीनन मद्धम है, मुमकिन है कि मेरी आँख भी नम है ।
क्या आज फिर मेरी क़लम के चंद कागज़ चूमने का मौसम है ।।
चश्मा मेरी आँख पे है, चश्मा उसकी आँख पे भी तो है।
किस मुँह से कहता है वो मुझे, तेरी सोच ज़रा 'तंग' है ।।
मेरी समझ से जो हैं संगदिल, वही ख़ुलूस-ओ-सुख़न से हैं महरूम।
यही बशर करते फिरते हैं ऐलान, दुनिया में अब 'वफ़ा' कम है।।
न सीखा मल्लाहों से दोस्ती का फ़न, न हवाओं की तासीर का इल्म।
कश्ती भँवर में ही सही, पर कैसे कह दे "राज़" कि दरिया में पानी कम है ।।
-संजीव ढढवाल ‘राज़’