डिजिटल इश्क
तुम्हारी उम्मीद रोज़-रोज़ जलते हैं...
फिर भी ख़ाक नहीं होते हैं।।
अजीब ख्वाब हैं "मेरे"...
बुझते है, लेकिन राख नहीं होते।।
किसी ने कहा ही नहीं, आती है 'वो'...
बारिश की काग़जी नाव हो गई है 'वो' ।।
जो भी हो! दुनियाँ 'डिजिटल' हो गई...
और मेरा इश्क़ 'अशर्फी की पोटली' हो गई।।
गौतम झा
Gunja
7 months agoअंतिम की दो पंक्तियाँ.......????
Gunja
7 months agoअंतिम की दो पंक्तियाँ.......wowww
SN Choudhary
7 months agoबहुत बढ़िया ।।