उम्मीद के रिश्ते

उम्मीद के रिश्ते

उम्मीद पर खड़ें हैं, नतीजा सब बिखड़े है
जो होगा वो देखेंगे! अब क्या-क्या सोचेंगें ?

रिश्ते सारे कृत्रिम है, भाव पर आश्रित है
स्वार्थ के सब खेल है, सुविधा से मेल है।

मां-बाप, भाई-बहन, बचपन के ये सारे रंग
बहु का हुआ आगमन, अनबन बसा आंगन।

द्वंद की हुई शुरुआत, रिश्ते बटे अपने आप
सास-बहू, ननद-भौजाई, देवर-भाभी, भैया-भौजी।

सास-बहू पहले सहमी, ननद-भाभी थोड़ी थोड़ी उलझी
ससुर ने लिया सबका संज्ञान, पति हुआ व्यथा से परेशान।

नवल कंठ से नया तान, नहीं रहा मान-सम्मान का ज्ञान
सास-ननद का राग अनोखा, सुसुर-देवर नहीं कुछ देखा।

भाई भी कुछ बहक गया, देवर का तेवर बढ़ा
मां ने लगाई गुहार, ननद का हुआ बेड़ा पार।

देवर ने दुल्हन लाया, भौजी का मन कुम्हलाया
भाई ने भवन बनाया, देवर मन ही मन इठलाया।

परिवार में परहेज़ होने लगा, उद्देश्य में द्वेष रिसने लगा,
माता-पिता हुआ परेशान,पेंशन पर अटका सबका ध्यान।

पिता का हुआ देहांत, माता बनी घर का प्रधान
श्रेष्ठता का नहीं पहचान, सबका अपना सम्मान।

ममता मुखर हुई, प्रधानता पर बेहद असर हुई
पहले रोटी का ब्याज लगाई, छोटे को राज दिलाई।

गौतम झा

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