पिता की स्मृति
कुछ स्मृतियाँ होती हैं बेहद प्यारी,
जीवन की नींव है उन पर आधारित।
राह जैसी हो – सकरी, समतल या उबर-खाबर,
पिता चलते थे एक सा निरंतर।
जिम्मेदारी शायद उनका जुनून था,
ऊबते नहीं, ऐसा उनका खून था।
तारीख बदलना कैलेंडर में निहित था,
उनके लिए प्रायोजित नहीं एक भी दिन था।
विचारों का इकट्ठा पहाड़ का दबाव था,
संतोष से संतुलन का मौलिक स्वभाव था।
मेहनत के संसाधनों से उनका लगाव था,
बदलती प्रकृति के प्रभाव से उनको अलगाव था।
पतझड़ के पीले पत्तों सा त्याग था,
बंजर भूमि से असीम अनुराग था।
बेटी घर बस जाए, यही सतत ख्याल था,
अपने लिए तो दो रोटियों का सवाल था।
बेटा बड़ा हुआ, वैभव से दो-चार हुआ,
आत्मीयता के रथ पर आक्रमण सवार हुआ।
ममता की दुविधा में पिता बेकार हुआ,
आते-जाते पीढ़ियाँ ऐसे ही लाचार हुआ।
गौतम झा
Anuradha
1 month ago🙏👌❤️