परेशान दुनियाँ

परेशान दुनियाँ

अब मैं खुद को ही ढूंढने लगा हूँ
खोया हुआ कल्ह भूलने लगा हूँ
कुछ निशानियां थी अजीज मेरे
उसी को पढ़ के गुजरने लगा हूँ।

जो सोचा वो हुआ ही नहीं
जो हुआ वो सहा ही नही
कुछ तुम बदली, कुछ हम
फिर तू-तू और हम-हम।

हिस्से में कहानियां चलनें लगी
किस्से में कुरीतियां बसनें लगी
मिलजुलकर अपराध होने लगे
संस्कार अब समाप्त होने लगे।

दुश्मन जब दबंग हो
उसमें अपने अंग हो
फिर किससे रण हो?
चाहे वो अपहरण हो।

गुमान में ही उत्थान है
मर्यादा का नहीं स्थान है
सुविधा का सारा सम्मान है
दुनियाँ यूं ही परेशान है।

गौतम झा

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