नारी- विशेष
तुम्हारी नायनशाला, ख़्वाबों की मधुशाला थी।
वक़्त की पाठशाला ने,विषैला धर्मशाला बना दिया ।
आचार-विचार सारे विषय दूर हो गए,
सख्त परिपक्व दैनिक दस्तूर हो गए।।
तरक्की, तुलना सारे तकदीर हो गए,
लालसा, प्रपंच मन के लकीर हो गए।।
चंदन सा जिसका अभिनंदन था,
अब विषधर में परिवर्तन हो गए।।
चम्पा, चमेली, बेली संग खेली थी,
सहसा सब मे अकेली हो गई।।
अवसाद के कल्प वृक्ष का संघार करो,
सावन का श्रृंगार कर तुम मल्हार करो।।
धरा विशेष आदि शक्ति अशेष बनो,
अपने आलेख में धनेश बन प्रवेश करो ।।
पुरुष निर्देशित अध्यादेश को,
दिनेश, सुरेश, महेश न करो।।
मुक्त आलोक सा नभ पथ पर,
नव नवल कंठ से रसगान करो।।
-गौतम झा