क्यों?
खोने से कीमत का पता चलता है
जागने से सदा दिन बनता रहता है
पाने से सफलता भी मुस्कुराता है
मेहनत से लोग क्यों जी चुराता है?
परिश्रम तो मजदूर है
कोशिश भी मजबूर है
पाना-खोना सब तय है
फिर मन में क्यों भय है?
पैसा, रुपया, दौलत, शोहरत
सब है दुनियाँ के असली जीनत
शिक्षा, दिक्षा, दया, दान, धर्म
कौशल में कहां है ये सब रंग?
आपस में अराजकता है
शासक में तो वैभवता है
विषय-वस्तु की व्यापकता है
जनता में क्यों नीरसता है?
बेरोजगारी कल-कल बहक रहा है
स्कूल, कॉलेज सब सुलग रहा है
वस्तु, विज्ञान, व्यापार ढल रहा है
सरकार नहीं क्यों बदल रहा है?
गौतम झा