हरे राम की दुविधा
बदलाव प्रकृति है,
सतत एवं सहज है।।
प्रगति का विस्तार है,
जीवन का आधार है।।
बदलना एक व्यवहार है,
उपहास का नहीं कोई सरोकार है।।
क्षद्म के छंद में हास्य और परिहास,
झूठ के तंज में बदलता इतिहास।।
स्मृतिकोष के संदूक में सच का निबास,
बोझल मन में अब नहीं कोई आस और विश्वास।।
आधा, ओझल और अनाम,
चाँद सा ठहरा उसका नाम।
दुविधा में है सब काम, संज्ञा हो या सर्वनाम।
विशेषण भी है आम, ऐसा है अपना राम।।
हरे राम! हरे राम! हरे, हरे।।
दुविधा में आप दूर ही रहें।।
-गौतम झा