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डिजिटल इश्क

डिजिटल इश्क

डिजिटल इश्क

तुम्हारी उम्मीद रोज़-रोज़ जलते हैं...
फिर भी ख़ाक नहीं होते हैं।।

अजीब ख्वाब हैं "मेरे"...
बुझते है, लेकिन राख नहीं होते।।

किसी ने कहा ही नहीं, आती है 'वो'...
बारिश की काग़जी नाव हो गई है 'वो' ।।

जो भी हो! दुनियाँ 'डिजिटल' हो गई...
और मेरा इश्क़ 'अशर्फी की पोटली' हो गई।।

गौतम झा

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3 Comments

  •  
    Gunja
    1 year ago

    अंतिम की दो पंक्तियाँ.......????

  •  
    Gunja
    1 year ago

    अंतिम की दो पंक्तियाँ.......wowww

  •  
    SN Choudhary
    1 year ago

    बहुत बढ़िया ।।