भाव का अलाव

भाव का अलाव

भाव का अलाव

शाख पर बैठा, मैं शज़र देख रहा हूं,
तेरे कसर का होनेवाला असर देख रहा हूं।

शरद के गुनगुनाते धूप के गुच्छे में दहक ढूंढ रहा हूं,
सर्द-सियाह-रात में तेरी ख्वाबों के आहट का नज़र देख रहा हूँ।

अनछुए पलों के अनेकों पहल सोच रहा हूँ,
मुकम्मल हो जाए, ऐसे ख्वाबों के दहाड़ों का दहड़ देख रहा हूँ।

तुम्हारे अनकहे भवर में, डूबते कश्ती का लचर देख रहा हूँ,
सुलझ जाए सारी कसर, ऐसी पहर का सहर (सुबह) देख रहा हूँ।

वीरानी की दीवानी को भी, शगुफ्ता होते देखा है,
जैसे ताबीज़ पहन के बीमार को अच्छा होते देखा है।

मेरे कोशिश के किरदार को पनाह दे दो,
इसी अज़ाब में माहताब को चरागे-आफताब दे दो।

कुमलाहे कमल में पानी का दरस दे दो,
सरस हो जाए ऐसे कुछ दिवस दे दो।

शंखनाद में सुर का संचार कर दो,
सहज हो जाए, ऐसे भाव का अलाव कर दो।

-गौतम झा

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